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स्व॒स्ति न॒ इन्द्रो॑ वृ॒द्धश्र॑वाः स्व॒स्ति नः॑ पू॒षा वि॒श्ववे॑दाः। स्व॒स्ति न॒स्तार्क्ष्यो॒ अरि॑ष्टनेमिः स्व॒स्ति नो॒ बृह॒स्पति॑र्दधातु ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

svasti na indro vṛddhaśravāḥ svasti naḥ pūṣā viśvavedāḥ | svasti nas tārkṣyo ariṣṭanemiḥ svasti no bṛhaspatir dadhātu ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

स्व॒स्ति। नः॒। इन्द्रः॑। वृ॒द्धऽश्र॑वाः। स्व॒स्ति। नः॒। पू॒षा। वि॒श्वऽवे॑दाः। स्व॒स्ति। नः॒। तार्क्ष्यः॑। अरि॑ष्टऽनेमिः। स्व॒स्ति। नः॒। बृह॒स्पतिः॑। द॒धा॒तु॒ ॥

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:89» मन्त्र:6 | अष्टक:1» अध्याय:6» वर्ग:16» मन्त्र:1 | मण्डल:1» अनुवाक:14» मन्त्र:6


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर मनुष्यों को किस प्रकार ईश्वर की प्रार्थना करके किसकी इच्छा करनी चाहिये, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - (वृद्धश्रवाः) संसार में जिसकी कीर्त्ति वा अन्न आदि सामग्री अति उन्नति को प्राप्त है वह (इन्द्रः) परम ऐश्वर्यवान् परमेश्वर (नः) हम लोगों के लिये (स्वस्ति) शरीर के सुख को (दधातु) धारण करावे (विश्ववेदाः) जिसको संसार का विज्ञान और जिसका सब पदार्थों में स्मरण है, वह (पूषा) पुष्टि करनेवाला परमेश्वर (नः) हम लोगों के लिये (स्वस्ति) धातुओं की समता के सुख को धारण करावे जो (अरिष्टनेमिः) दुःखों का वज्र के तुल्य विनाश करनेवाला (तार्क्ष्यः) और जानने योग्य परमेश्वर है, वह (नः) हम लोगों के लिये (स्वस्ति) इन्द्रियों की शान्तिरूप सुख को धारण करावे और जो (बृहस्पतिः) वेदवाणी का प्रभु परमेश्वर है, वह (नः) हम लोगों को (स्वस्ति) विद्या से आत्मा के सुख को धारण करावे ॥ ६ ॥
भावार्थभाषाः - ईश्वर की प्रार्थना और अपने पुरुषार्थ के विना किसी को शरीर, इन्द्रिय और आत्मा का परिपूर्ण सुख नहीं होता, इससे उसका अनुष्ठान अवश्य करना चाहिये ॥ ६ ॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनर्मनुष्यैः कथं प्रार्थित्वा किमेष्टव्यमित्युपदिश्यते ॥

अन्वय:

वृद्धश्रवा इन्द्रो नः स्वस्ति दधातु विश्ववेदाः पूषा नः स्वस्ति दधातु। अरिष्टनेमिस्तार्क्ष्यो नः स्वस्ति दधातु बृहस्पतिर्नः स्वस्ति दधातु ॥ ६ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - (स्वस्ति) शरीरसुखम् (नः) अस्मभ्यम् (इन्द्रः) परमैश्वर्यवान् परमेश्वरः (वृद्धश्रवाः) वृद्धं श्रवः श्रवणमन्नं वा सृष्टौ यस्य सः (स्वस्ति) धातुसाम्यसुखम् (नः) अस्मभ्यम् (पूषा) पुष्टिकर्त्ता (विश्ववेदाः) विश्वस्य वेदो विज्ञानं विश्वेषु सर्वेषु पदार्थेषु वेदः स्मरणं वा यस्य सः (स्वस्ति) इन्द्रियशान्तिसुखम् (नः) अस्मभ्यम् (तार्क्ष्यः) तृक्षितुं वेदितुं योग्यस्तृक्ष्यः। तृक्ष्य एव तार्क्ष्यः। अत्र गत्यर्थात् तृक्ष धातोर्ण्यत्। ततः स्वार्थेऽण्। (अरिष्टनेमिः) अरिष्टानां दुःखानां नेमिर्वज्रवच्छेता। नेमिरिति वज्रनामसु पठितम्। (निघं०२.२०) (स्वस्ति) विद्ययाऽऽत्मसुखम् (नः) अस्मभ्यम् (बृहस्पतिः) बृहत्या वेदवाचः पतिः (दधातु) धारयतु ॥ ६ ॥
भावार्थभाषाः - न हीश्वरप्रार्थनास्वपुरुषार्थाभ्यां विना कस्यचिच्छरीरेन्द्रियात्मसुखं सम्पूर्णं सम्भवति तस्मादेतदनुष्ठेयम् ॥ ६ ॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - ईश्वराची प्रार्थना व आपल्या पुरुषार्थाशिवाय कुणालाही शरीर, इंद्रिये व आत्मा यांचे परिपूर्ण सुख मिळत नाही, त्यामुळे त्याचे अनुष्ठान अवश्य करावे. ॥ ६ ॥